कुमार भवेश चंद्र
किसानों के चार घंटे का ‘भारत बंद’ शांतिपूर्ण तरीके से समाप्त हो गया। मोदी समर्थकों और विरोधियों के बीच इस बंद की कामयाबी और नाकामयाबी की चर्चा होती रहेगी लेकिन सच्चाई यही है कि इस बंद के बाद सरकार की ओर से गृह मंत्री अमित शाह आज शाम किसानों से बातचीत करने जा रहे हैं।
अमित शाह का इस बातचीत में शामिल होना कितना अहम है इसे समझाने की जरूरत नहीं है। साफ है कि सरकार बातचीत के लिए हल का रास्ता तलाश रही है। बातचीत को आगे बढ़ाने से पहले यह बताना जरूरी लग रहा है कि किसानों का ‘भारत बंद’ आज बहुत लोगों को चुभ रहा था। वे भूल गए कि धरना-प्रदर्शन और बंद ही लोकतंत्र में सत्ता तक अपनी आवाज को पहुंचाने का रास्ता रहे हैं।
लंबे समय तक विपक्ष में रहने वाली बीजेपी क्या इस सच को झुठला पाएगी? लेकिन दुर्भाग्यजनक है कि आज बीजेपी के ढेरों समर्थक किसानों के इस बंद का न केवल विरोध कर रहे थे बल्कि उन्हें किसान मानने से भी इनकार कर रहे थे।
मुख्य धारा की मीडिया की विश्वसनीयता समाप्त हो जाने के बाद बची खुची उम्मीद पैदा करने वाले सोशल मीडिया पर सक्रिय भाजपा समर्थकों ने पिछले दो दिनों से ऐसा ही माहौल बनाने की कोशिश की।
किसान बंद का समर्थक होने का मतलब देशद्रोह। तो क्या अमित शाह आज शाम देशद्रोहियों से वार्ता करने जा रहे हैं। क्या अमित शाह किसानों के बजाय किसी और समूह से बात करने जा रहे हैं?
बहरहाल, चार घंटे के शांतिपूर्ण बंद के बाद किसानों के हौसले बुलंद हैं। फिलहाल वे अपनी मांग पर कायम हैं। वे चाहते हैं कि सरकार किसानों के लिए हाल में बने तीनों कानून वापस ले और एमएसपी व्यवस्था को सुनिश्चित करे।
ये देखना दिलचस्प होगा कि अमित शाह सरकार की ओर से उनके सामने किस तरह का प्रस्ताव रखते हैं और किसान संगठन इस अहम बातचीत में क्या रुख दिखाते हैं।
किसान आंदोलन के इस दौर में पहुंचने के बाद यह बात साफ हो चुकी है कि वे अपनी मांग को लेकर सरकार पर दबाव बनाने में कामयाब हो चुके हैं। लोकतंत्र में किसी मांग के प्रति सरकार का ये लचीला रवैया भी स्वागत योग्य कदम है।
आखिरकार सरकारों का दायित्व जनता को संतुष्ट रखना भी है। किसान अगर इन कानूनों को अपने पक्ष में नहीं मान रहे हैं तो इसे जबरन उनपर थोपने की आवश्यकता ही क्या है?
वैसे भी सरकार तो किसानों का भला ही चाहती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पुराना वादा है कि वह किसानों की आय दोगुना करने के लिए काम करेंगे। और अगर इन कानूनों के बनने से किसी तरह की आशंका जन्म ले चुकी है तो इसे जारी रखने का कोई खास औचित्य नहीं।
लेकिन सवाल उठता है कि क्या सरकार इतनी आसानी से इन कानूनों को वापस लेने के लिए तैयार होगी? पिछले छह सालों में इस सरकार को लेकर जो छवि बनी है उसके आधार पर इसका जवाब नकारात्मक ही होगा?
कई केंद्रीय मंत्री कह चुके हैं कि सरकार इन कानूनों में थोड़ी बहुत तब्दीली के लिए तैयार है? लेकिन तब ये सवाल बनता है कि क्या किसान संगठन उन छोटे-मोटे बदलावों से संतुष्ट हो जाएंगे? वह भी तब जब 32 संगठन एकजुट हैं और राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का समर्थन उनके साथ दिख रहा है। ऐसे में बीच का रास्ता यही है कि किसान इस कानून के उन प्रावधानों को लेकर सरकार से स्पष्ट वादा लें जिनको लेकर आशंकाएं सबसे अधिक है?
किसान भी जानते हैं कि मौजूदा मंडी व्यवस्था में कई खामियां हैं? सरकार ने नई व्यवस्था बनाने के लिए उन खामियों को ही बहाना बनाया है। यह बात और है कि घायल पैर के इलाज के नाम पर पैर काटने की बात की जा रही है। किसानों की पहली प्राथमिकता घायल पैर को कटने से बचाना है।
यानी मंडी व्यवस्था बनाए रखने का वादा लेना? ऐसा वादा लेना जिसमें किसी तरह के भ्रम की गुंजाइश न हो? यह भी साफ है कि मंडी व्यवस्था की मौजूदा खामियों को दूर किए बिना किसानों को बेहतर लाभ नहीं मिल सकता। लिहाजा मंडी व्यवस्था में सुधार को लेकर व्यावहारिक रुख सामने रखना होगा।
दूसरी बड़ी चिंता और शायद मूल चिंता है कॉरपोरेट का कृषि पर कब्जे की संभावना का पूरी तरह अंत हो। कृषि प्रधान देश में ऐसी किसी व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया जा सकता जिससे खेती बाड़ी पर कॉरपोरेट का कोई दबाव बढ़े या किसी तरह का दखल बढ़े।
किसान संगठन वार्ता की मेज पर अगर सरकार से यह भरोसा हासिल कर सकें कि नया कानून किसानों को कॉरपोरेट का गुलाम नहीं बल्कि सहयोगी या सुविधा मुहैया कराने वाले के रूप में सामने आ सकें तो इससे बड़ी जीत नहीं होगी।
ये सभी जानते हैं कि किसानों को उनके उत्पादों की तार्किक कीमत नहीं मिल पा रही है। बाजार व्यवस्था पर अंकुश रखने का सरकारी नियम किसानों के हित में नहीं।
महंगाई दर को स्थिर रखने की कीमत किसानों से अधिक कोई नहीं चुकाता। फसलों का लाभकारी मूल्य इसलिए मिल पाता क्योंकि बाजार और बिचौलिए का तंत्र पूरी तरह से हावी है।
किसानों को इस कुचक्र से निकालने की जिम्मेदारी आखिर सरकार की ही है। क्या कोई ऐसी व्यवस्था नहीं बन सकती है जिसमें किसानों की कमाई भी सरकारी अफसरों की कमाई के अनुपात में सालाना बढ़ती जाए। क्या इस सोच के साथ नई व्यवस्था बनाने की जरूरत नहीं?