जैसे-जैसे 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस नजदीक आ रहा है, इसके साथ ही यह समझने का भी वक्त है कि सिर्फ सैन्य परेड, वीआईपी और विदेशी मेहमानों के अलावा इस दिन का क्या मतलब है। वैसे तो गणतंत्र दिवस हमारे राष्ट्र होने का उत्सव है जहां सर्वोच्च शक्ति नागरिकों के पास है। और यह शक्ति हमारे संविधान ने हमें गारंटी के रूप में दी है।
इस दिन हम जिसका उत्सव मनाते हैं वह है हमारा संविधान, और खासतौर से नागरिकों और आम लोगों को मिले अधिकार। हमें जो बुनियादी अधिकारी मिले हुए हैं उसके तहत हमें समानता, भेदभाव से मुक्ति, बोलने की आज़ादी, स्वतंत्र संगठन और स्वतंत्र सभा का अधिकार, जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार और व्यवसाय का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, धर्म का प्रचार, अभ्यास और प्रबंधन करने की आज़ादी और अगर सरकार द्वारा हमारे मौलिक अधिकारों का गलत तरीके से अतिक्रमण या उल्लंघन किया जाता है तो सुप्रीम कोर्ट जाने की आज़ादी मिलती है।
अधिकारों का यह समूह काफी मजबूत दिखता है। लेकिन क्या वास्तव में हमारे पास ये अधिकार हैं? इसका उत्तर है – नहीं। हम पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं हैं। आइए देखें कि सरकार ने कितनी आसानी से उन अधिकारों में अतिक्रमण किया है जिनके बारे में हमें लगता था कि इनमें अतिक्रमण से उन्हें उच्च स्तर की सुरक्षा हासिल है:
संविधान का अनुच्छेद 19 बोलने, सभा करने, संगठित होने, आंदोलन करने और मर्जी का काम करने या पेशा चुनने की स्वतंत्रता एक व्यापक मौलिक अधिकार है। इसमें लिखा है: ‘सभी नागरिकों को अधिकार होगा : भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता; शांतिपूर्वक और बिना हथियारों के इकट्ठा होना; संगठन या यूनियन बनाना; भारत के किसी भी इलाके में स्वतंत्र रूप से घूमना; भारत के किसी भी हिस्से में निवास करना और बसना; कोई भी पेशा अपनाना, या कोई व्यवसाय, व्यापार या कारोबार करना।’
वास्तविकता यह है कि आज इनमें से कोई भी अधिकार उस रूप में मौजूद नहीं है जैसा कि उन्हें होना चाहिए।
भारत का पहला संवैधानिक संशोधन (जवाहरलाल नेहरू के शासन के दौरान कानून बनाया गया) इन अधिकारों को सीमित करके उन्हें प्रतिबंधित करता है। इसका मतलब है कि सरकार को तथाकथित ‘उचित प्रतिबंधों’ के माध्यम से उन्हें रोकने का अधिकार दिया गया था। उदाहरण के लिए, मुक्त भाषण को भारत की संप्रभुता और अखंडता, देश की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता के हित में, या अदालत की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध के लिए उकसाने के संबंध में ‘उचित प्रतिबंधों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है … ।’
ऊपर बताए गए नियमों के अनुसार सरकार कोई भी कानून बना सकती है, जो इतने व्यापक हैं कि उनमें कुछ भी समा सकता है। आइए देखें कि सरकार ने अनुच्छेद 19 के तहत अधिकारों का उल्लंघन किस तरह से किया है।
भारतीय नागरिकों के शांतिपूर्ण तरीके से एकत्र होने के अधिकार को कानून और प्रक्रिया दोनों के जरिए अवरुद्ध कर दिया गया है। नागरिकों के पास वास्तव में शांतिपूर्ण तरीके से एकत्र होने का यह अधिकार नहीं है। उन्हें शांतिपूर्ण तरीके से एकत्र होने के लिए पुलिस से अनुमति लेने का तो अधिकार है, लेकिन वहीं पुलिस को स्वीकृति देने या न देने या कोई भी जवाब न देने का अधिकार है (जो अक्सर भारत में सरकार द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली रणनीति है, ताकि नागरिकों को इनकार किया जा सके)। लिखित अनुमति के बिना सभा करना कानून का उल्लंघन माना जाता है। पाठकों को सीआरपीसी की धारा 144 के बारे में जानकारी है, जो सरकार को ‘गैरकानूनी सभा’ में शामिल लोगों को गिरफ्तार करने का अधिकार देती है।
संगठन बनाने या यूनियन बनाने के अधिकार को पंजीकरण की प्रक्रिया के लिए चिंताजनक रूप से सीमितकर दिया गया है। सरकार उन संगठनों के पंजीकरण से इनकार कर सकती है (या इसमें देरी कर सकता है) जो उसे पसंद नहीं हैं। वह उन लोगों का पंजीकरण रद्द कर सकती है जिनकी गतिविधियां उसे पसंद नहीं हैं। वह उन लोगों पर प्रतिबंध लगा सकती है जिनसे उसे समस्या है। इसके अलावा अतिव्यापक कानून सरकार को बिना दोषसिद्धि या सुनवाई के व्यक्तियों को ‘आतंकवादी’ के रूप में परिभाषित करने का अधिकार देते हैं, उनका उपयोग संगठन बनाने के अधिकार को बाधित करने और प्रतिबंधित करने के लिए किया जाता है।
पूरे भारत में स्वतंत्र रूप से घूमने का अधिकार पूर्वोत्तर में आने-जाने वालों के लिए मौजूद ही नहीं है। ऐसे अधिकार जो कानून के शासन द्वारा लागू नहीं किए जा सकते, उनका अस्तित्व ही नहीं है। इसे समझने के लिए मणिपुर के निवासियों को यह बताने की कोशिश करके देखिए कि उन्हें स्वतंत्र रूप से घूमने का अधिकार है।
भारत के किसी भी हिस्से में रहने और बसने का अधिकार गुजरात के मुसलमानों पर लागू नहीं होता है, क्योंकि उस राज्य के लिए एक विशेष कानून है, जिसे अशांत क्षेत्र अधिनियम कहा जाता है। यह एक पुराना कानून है, लेकिन समय के साथ व्यापक होता गया है, इसके तहत मुसलमानों के लिए संपत्ति किराए पर लेने और खरीदने के नियम सख्त किए गए हैं।
किसी भी पेशे को अपनाने का अधिकार कसाईयों या मांस का कारोबार करने वालों पर लागू नहीं होता, जिन्हें सरकार यह कह देती है कि वे पशुओं का वध नहीं कर सकते। इस तरह उन्हें उनके मौलिक अधिकार से स्पष्ट रूप से वंचित किया जा रहा है। अनुच्छेद 19 अपने पाठ में स्वतंत्रता तो देता है, लेकिन इस अधिकार को अनुच्छेद के अंत में लिखी इबारत के जरिए पूरी तरह से हटा देता है।
1950 से भारत और इसके राज्यों में शासन करने वाली सभी पार्टियों की सभी सरकारें इन प्रतिबंधों से सहमत हैं। इस मामले में कोई भी पार्टी अलग नहीं है। ‘उचित’ क्या है, यह सरकार को तय करना है और सरकार हमेशा व्यक्ति के खिलाफ़ रुख अपनाता है।
आम धारणा यह है कि नागरिक और अधिकार ऐसे कृत्य या बवाल हैं जो सरकार के उचित प्रशासन (‘सुशासन’) के रास्ते में आते हैं। उदाहरण के लिए, जनसंघ द्वारा घोषणापत्रों में किए गए वादे एहतियाती हिरासत को हटाने के लिए, जो यूएपीए जैसे कानूनों का आधार है, पार्टी के सत्ता में आते ही तुरंत पलट दिए जाते हैं।
गणतंत्र दिवस पर संविधान को दोबारा पढ़ना, खास तौर पर मौलिक अधिकारों से संबंधित इसके भाग 3 को पढ़ना उचित होगा। यह केवल दर्जन भर पृष्ठों का भाग है, लेकिन जहां तक व्यक्ति का सवाल है, यह संविधान का हृदय है। हमारे संविधान के प्रति सम्मान और बंदूकों, टैंकों, विमानों और वीआईपी के साथ इसका जश्न मनाना अच्छी बात हो सकती है, लेकिन इसे पढ़ना और समझना इन सबसे कहीं ज्यादा बेहतर होगा।