लखनऊ। उत्तर प्रदेश में 8 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव को लेकर सत्तासीन भाजपा और विरोधी दल सपा-कांग्रेस ने तैयारी शुरू कर दी है। कयास लगाए जा रहे हैं कि 8 साल से सत्ता से बाहर बसपा पहली बार उप चुनाव में उम्मीदवार उतारेगी। साल 2018 में हुए तीन लोकसभा क्षेत्र और एक विधान सभा सीट पर विपक्ष की एकजुटता ने भाजपा के आत्मविश्वास को डिगा दिया था।
हालांकि, 2017 के विधानसभा और 2014 के आम चुनाव में गठबंधन काम नहीं आया। एक बार फिर उपचुनाव हो रहे हैं, ऐसे में सवाल यही है कि आखिर बना गठबंधन विपक्ष भाजपा को कैसे मात दे पाएगा?
इन आठ सीटों पर हाे रहा उपचुनाव
माना जा रहा है कि बिहार चुनावों के साथ ही यूपी में भी उपचुनाव होंगे। जिन 8 सीटों पर चुनाव होने हैं, उसमें से 5 विधानसभा सीटों पर 2017 में निर्वाचित विधायक कमल रानी वरुण, पारसनाथ यादव, वीरेंद्र सिरोही, जन्मेजय सिंह, चेतन चौहान का निधन हो चुका है।
जबकि रामपुर के स्वार सीट से गलत डाक्यूमेंट्स लगाने पर आजम खां के बेटे अब्दुल्ला आजम खां की सदस्यता जा चुकी है। वहीं, बांगरमऊ विधानसभा सीट से 2017 में चुनाव जीते कुलदीप सिंह सेंगर के सजायाफ्ता होने के कारण उनकी सदस्यता चली गयी। टूण्डला विधानसभा सीट से एसपी सिंह बघेल के सांसद बनने के बाद सीट खाली हुई है। अब यहां भी उपचुनाव होना है।
इन आठ सीटों पर भाजपा ने 2017 के चुनाव में 6 सीटें जीती थीं, जबकि 2 सीटें सपा के पास थी। लेकिन, 2012 में इनमें से 4 सीट सपा के पास, 2 बसपा के पास और एक-एक सीट पर कांग्रेस और भाजपा का कब्जा था।
उपचुनाव जीतना क्यों जरूरी है?
योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में यूपी की सत्ता पर काबिज हुई भाजपा साढ़े तीन साल बिता चुकी है। जबकि कार्यकाल खत्म होने में अब सिर्फ डेढ़ साल ही बचे हैं। हालांकि भाजपा अगर ये 8 सीटें हार भी जाएं तो भी उस पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
लेकिन, जानकार मानते हैं कि यूपी विधानसभा चुनाव 2022 से पहले यह चुनाव एक तरह से अपनी ताकत दिखाने का टेस्ट होता है। यही वजह है कि सत्ता पक्ष समेत सभी विपक्षी पार्टियां भी इसे पूरी ताकत से लड़ना चाहती हैं। इससे पता चल जाएगा कौन कितने पानी में है।
गठबंधन क्यों है जरूरी?
2014 में केंद्र में सत्ता बनाने के बाद कई राज्यों में भाजपा ने भगवा फहराया। 2017 में भाजपा ने यूपी में भगवा फहराया और 300 से ज्यादा सीटें आई। 2018 में जब गोरखपुर, फूलपुर और कैराना लोकसभा सीट पर उपचुनाव की घोषणा हुई तो विपक्ष एकजुट होना शुरू हो गया। मार्च 2018 में गोरखपुर जोकि योगी के सीएम बनने की वजह से सीट खाली हुई थी, जबकि फूलपुर केशव मौर्य के डिप्टी सीएम बनने से खाली हुई थी।
वहीं मई में हुए कैराना लोकसभा की सीट सांसद हुकुम सिंह के निधन से खाली हुई थी। गोरखपुर और फूलपुर सीट पर सपा और बसपा एक साथ आए कांग्रेस को गठबंधन से अलग रखा गया। इसके बावजूद गठबंधन गोरखपुर और फूलपुर जीत गया। हालांकि दोनों ही सीटों पर सपा के टिकट पर कैंडिडेट जीते। इसके 3 महीने बाद मई में कैराना में उपचुनाव की घोषणा हुई तो पिछले रिजल्ट से उत्साहित सपा-बसपा ने गठबंधन में रालोद को भी शामिल किया।
हालांकि कांग्रेस ने भी सपोर्ट करते हुए कैंडिडेट नहीं उतारा। यहां भी गठबंधन की जीत हुई। इसी तरह 2018 में ही नूरपुर में हुए विधानसभा चुनाव में भी सपा को सभी विपक्षी पार्टियों ने सपोर्ट किया तो वह चुनाव जीत गयी थी।
2017 विधानसभा चुनावों में गठबंधन होता तो कैसा होता इन 8 सीटों पर रिजल्ट?
2017 में सपा और कांग्रेस का गठबंधन हुआ था। जिसमें से कांग्रेस सिर्फ 105 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। जबकि बसपा अलग चुनाव लड़ी थी। अगर तीनों पार्टियां मिल जातीं तो रिजल्ट अलग हो सकता था।
- घाटमपुर सीट: इस सीट पर भाजपा को 48.5% वोट मिला था। यहां से कांग्रेस का कैंडिडेट खड़ा हुआ था। लेकिन सपा-कांग्रेस-बसपा के वोट मिला भी दिए जाएं तो भी भाजपा को ही जीत मिलती।
- मल्हनी सीट: इस सीट पर भाजपा को 18.8% वोट मिला था। यह सीट पारंपरिक रूप से सपा की ही रही है। 2017 में भी सपा ने ही परचम फहराया था। हालांकि इस सीट पर बाहुबली धनंजय सिंह निर्बल इंडियन शोषित हमारा दल से दूसरे नंबर पर थे।
- स्वार सीट: यह सीट आजम खान के गढ़ रामपुर में है। 2017 में सपा ने आजम के बेटे अब्दुल्ला आजम को टिकट दिया था। यहां भी भाजपा को केवल 25.9% वोट मिले थे और भाजपा दूसरे नंबर पर थी।
- बुलंदशहर (सदर) सीट: यह सीट भी गठबंधन में सपा के खाते में आई थी। भाजपा को 45.5% वोट मिले थे, जबकि सपा को केवल 9.8% वोट। जबकि बसपा दूसरे नंबर पर थी, उसे 36.1% वोट मिले थे। अगर गठबंधन में बसपा शामिल होती तो यह सीट गठबंधन के खाते में जाती।
- टूंडला सीट: इस सीट पर भी सपा का कैंडिडेट था, लेकिन भाजपा ने 48.7% वोट के साथ भगवा लहराया था। यहां भी बसपा से भी गठबंधन होता तब भी कोई फायदा नहीं था।
- देवरिया (सदर) सीट: इस सीट पर भी भाजपा का परचम 48% वोटों के साथ लहराया। यहां भी गठबंधन फेल हो जाता।
- बांगरमऊ सीट: इस सीट पर भाजपा को 43.4% वोट मिले थे और वह सीट भी जीत गयी थी। लेकिन सपा गठबंधन को यहां यदि बसपा का साथ मिलता तो तस्वीर बदल जाती। दोनों मिलते तो 51.5% वोट मिलते।
- नौगावां सादात सीट: 41.4% वोट के साथ यहां भाजपा जीती थी। जबकि सपा और बसपा साथ होते तो यह सीट गठबंधन जीत सकता था।
क्या कहते हैं जानकार?
सीनियर जर्नलिस्ट रतनमणि लाल कहते हैं कि यूपी में पिछले 6 सालों में 3 चुनाव हुए हैं। जिसमें से विपक्ष ने अलग-अलग तरह के गठबंधन जीतने के लिए किए। लेकिन गठबंधन फेल रहे। जबकि 2018 में जब 3 लोकसभा सीट और एक विधानसभा सीट पर विपक्ष एकजुट हुआ तो भाजपा हार गई। दरअसल, 2017 विधानसभा और 2019 लोकसभा चुनाव में विपक्ष ने जो गठबंधन किया, वह सिर्फ नेताओं तक ही सीमित रहा।
वह गठबंधन जमीन पर नहीं दिखा। वोटर ने भी यही बताया कि हमने सपा को या बसपा या कांग्रेस को वोट दिया। उसने यह नहीं कहा कि हमने गठबंधन को वोट दिया। अब आप 2018 में हुए उपचुनाव को देखिए। बसपा-सपा ने गठबंधन किया लेकिन उल्टी सीधी कहीं भी बयानबाजी नहीं हुई।
जमीनी स्तर पर काम हुआ, जो कांग्रेस गठबंधन से दूर रही उसने भी एक सीट पर अपना कैंडिडेट नहीं उतारा। जिसका नतीजा उपचुनावों में विपक्ष ने बाजी मार ली। ऐसे में जब पिछले 2 चुनाव आप गठबंधन से नहीं जीत पाए तो यह उपचुनाव अकेले-अकेले लड़ने से मुश्किल तो आएगी ही।
2018 उपचुनावों का ऐसा था रिजल्ट
2018 उपचुनावों में सपा+बसपा का गठबंधन हुआ था। जबकि कांग्रेस गठबंधन से अलग थी। गोरखपुर और फूलपुर में गठबंधन के सामने कांग्रेस ने कैंडिडेट उतारे थे लेकिन दोनों ही सीट पर जीत गठबंधन की हुई। इससे सबक लेकर भाजपा को हराने के लिए कैराना लोकसभा सीट और नूरपुर विधानसभा सीट पर अपने कैंडिडेट नहीं उतारे बल्कि गठबंधन को समर्थन दे दिया।