तीसरी कसम, पंचलैट… सिनेमा में साहित्य को क्यों नहीं मिली पर्याप्त जगह

दुष्‍यंत

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यह फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का जन्मशती वर्ष है। हिंदी के इस महान कथाकार की कहानी पर बनी पहली हिंदी फिल्म ‘तीसरी कसम’ थी, जो गीतकार शैलेंद्र ने 1966 में बनाई थी। बासु भट्टाचार्य थे निर्देशक। राजकपूर, वहीदा रहमान ने अभिनय किया। दूसरी फिल्म ‘पंचलैट’ है, जो पहली फिल्म के 50 साल बाद आई है। हिंदी साहित्‍य और सिनेमा के इस गणित का हासिल यह है कि कुल जमा दो ही फिल्में रेणु के कथासंसार से हिंदी सिनेमा में आई हैं।

तो, रेणु का जन्मशती वर्ष वह सुंदर अवसर है, जब ओटीटी ने हिंदी साहित्‍य और सिनेमा की दूरी को कम करने की आहट दी है। रेणु की कहानी पर प्रेम प्रकाश मोदी के निर्देशन में बनी ‘पंचलैट’ एमएक्‍स प्‍लेयर पर लो‍कप्रियता सूची में ऊंचे पायदान पर है। इसमें अनुराधा मुखर्जी और अमितोष नागपाल मुख्‍य भूमिका में हैं।

रेणु का प्रेमचंद के साथ हिंदी में वही स्‍थान है, जो उर्दू में मंटो, क्रिशन चंदर, बेदी का है, बांग्‍ला में टैगोर, विमल मित्र या शरदचंद्र का है और विश्‍व कथा साहित्‍य में चेखव, ओ हेनरी या मोपासां का है। रेणु की कथाएं अब भारतीय जनमानस में लोककथाओं का मेयार हासिल कर चुकी हैं।

रेणु के बहाने हमें सोचना चाहिए कि हिंदी साहित्य का वैसा सौहार्दपूर्ण रिश्ता हिंदी सिनेमा से क्यों नहीं बना, जैसा बांग्ला साहित्य और सिनेमा का रहा है। आकार में बहुत छोटा होने के बावजूद बांग्‍ला सिनेमा में हर साल एक या एक से ज्‍यादा फिल्‍में बांग्‍ला साहित्यिक कृति का एडॉप्‍शन होती हैं।

SAHITYA CINEMA SETU (साहित्य सिनेमा सेतु) (@CinemaSetu) | Twitter

हिंदी फिल्मों में हिंदी साहित्य की उपस्थिति तो नगण्य रही ही है, हिंदी के लोकप्रिय साहित्य से भी फिल्मी एडॉप्शन कम ही दिखता है। भारतीय परिवेश की अंग्रेजी किताबें फिल्मकारों तक जल्दी और आसानी से पहुंचती हैं और वही हिंदी सिनेमा के लिए जरूरी ईंधन देती हैं, तो अंग्रेजी माध्यम से देश-विदेश में पढ़कर आया फिल्मकार हिंदी किताब क्यों खोजे! हिंदी परिवेश से आने वाले फिल्मकार भी अपनी प्रेरणा अंग्रेजी किताबों से लेते, खोजते हैं तो इसे क्या कहा जाए!

हिंदी सिनेमा की समकालीन दुनिया के कुछ फिल्मकारों का नाम लिया जा सकता है, जो हिंदी साहित्य की दुनिया से वाकिफ भी हैं, प्रेरित भी और अपनी फिल्मों के लिए हिंदी किताबों को छानते रहते हैं जैसे- विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, चंद्रप्रकाश द्विवेदी और अविनाश दास। वहीं केतन मेहता, सैय्यद अहमद अफजाल, सुभाष कपूर, हंसल मेहता, अनुभव सिन्‍हा और सुधीर मिश्रा जैसे निर्देशक साहित्यिक संवेदना संपन्न फिल्‍मकार हैं।

क्या यह बात प्रासंगिक नहीं है कि सरकारी आर्थिक मदद से बने समांतर सिनेमा और हाल के दशकों में इंडिपेंडेंट सिनेमा की छोटी कोशिशों को छोड़ दिया जाए तो उदयप्रकाश, राजेंद्र यादव, मोहन राकेश, कृष्णा सोबती, कमलेश्वर, यादवेंद्र शर्मा चन्द्र जैसे हिंदी के दर्जनों शीर्षस्थ कथाकारों की अनेक उल्लेखनीय कथाकृतियां हिंदी में फिल्मी एडॉप्शन के लायक हैं परंतु उन पर सिनेमा नहीं बना है। यानी, कमोबेश यह स्थिति हिंदी के कई महान कथाकारों के साथ है।

Theatre awards and a book of plays- The New Indian Express

हाल के दिनों में भारतीय भाषाओं से हिंदी फिल्म एडॉप्शन का सबसे चर्चित उदाहरण अमोल पालेकर के निर्देशन में बनी शाहरुख खान की फिल्म ‘पहेली’ का दिया जा सकता है, जो राजस्थानी लेखक विजयदान देथा बिज्जी की कहानी पर आधारित थी। साहित्यिक संवेदना का योगदान रहा ही होगा कि फिल्म ऑस्कर तक पहुंची। गुलजार साहब की साहित्यिक संवेदना से कौन असहमत होगा भला! उनके निर्देशन में बनी शुरुआती फिल्में साहित्यिक कृतियों पर ही थीं। ‘आंधी’ तो प्रख्यात हिंदी कथाकार कमलेश्वर जी के उपन्यास पर ही थी।

सरकारी पैसे से समांतर सिनेमा में हिंदी किताबों का एडॉप्‍शन तो हुआ पर मुख्‍य धारा के सिनेमा ने हिंदी साहित्यिक कृतियों की तरफ से लगभग मुंह फेरे ही रखा। इसका नुकसान दोनों को हुआ, और परंपरा भी नहीं बन पाई। परपंरा न बन पाने के पीछे एक धारणा यह भी है कि अगर ‘तीसरी कसम’ फिल्‍म बॉक्‍स ऑफिस पर चल जाती तो हिंदी सिनेमा में हिंदी साहित्‍य की जगह अलग ही होती।

teesri kasam a legend love story of indian cinema

यह धारणा इस तथ्‍य के बावजूद है कि तीसरी कसम चाहे थिएटर रिलीज पर अच्‍छी सफलता हासिल न भी कर सकी हो, उसे भारतीय सिनेमा के इतिहास में क्‍लासिक का दर्जा मिला है। और बेस्‍ट फीचर फिल्‍म का नैशनल अवॉर्ड तो मिला ही था। थिएट्रिकल कलेक्‍शन के अलावा फिल्‍म की सफलता का पैमाना लाइफ स्‍पैन कलैक्‍शन भी होता है, और लाइफ स्‍पैन कलैक्‍शन के लिहाज से ‘तीसरी कसम’ यकीनन एक सफल फिल्‍म है।

देखा जाए तो हर एडॉप्‍शन कृति का नया अवतार होता है, पर बहस हमेशा रहती है कि फिल्‍म ने किताब के साथ कितना न्‍याय किया? बहस अपनी जगह वाजिब भी है, तार्किक भी। यहां सोचने वाली बात यह भी है कि सिनेमा की विधा से प्रेम करने वाले, एक फिल्‍म स्‍कूल की स्‍थापना करने वाले नोबेल विजेता कथाकार गेब्रिअल गार्सिया मार्खेज अपनी किताबों के सिनेमाई एडॉप्‍शन के लिए कभी उत्‍साहित नहीं रहे।

सिनेमा सबसे नई और सब कलाओं को अपने में शामिल करने वाली कला है। माना जाता है कि साहित्य, चित्रकला, नृत्य, संगीत, फटॉग्रफी आदि सब इसमें हैं। ऐसा भी होता है कि कुछ निर्देशकों की फिल्में मूल साहित्यिक कृतियों के बराबर की कलाकृति हो जाती हैं। जैसे बिना एक भी छपी हुई किताब के बॉब डिलन को साहित्‍य का नोबेल पुरस्‍कार दिया गया, संभव है कि निकट भविष्‍य में निर्देशकों को उनकी फिल्‍म के लिए सर्वश्रेष्‍ठ साहित्‍य कृति के पुरस्‍कार दिए जाएं। तो यह अवधारणा रखी जा सकती है कि सिनेमा ही नए समय का साहित्‍य है और निर्देशक ही साहित्‍यकार।

साहित्यिक कृतियों पर सिनेमा बने या न बने, सिनेमा में साहित्यिक संवेदना बची रहे, सिनेमा पूर्व की कलाओं के लिहाज से साहित्‍य की इतनी जरूरत, अहमियत सिनेमा बनाने वाले महसूस करते रहें, तो उम्‍मीद और भरोसा कर सकते हैं कि अच्‍छा और जीवन से जुड़ा सार्थक सिनेमा बनता रहेगा। यह कर पाना भी रेणु जैसे साहित्‍यकारों की आत्‍मा को शांति और सुख देने के लिए काफी होगा।

(लेखक बॉलिवुड के चर्चित गीतकार और स्क्रिप्‍ट राइटर हैं)

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं

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