यूपी के चुनावों में क्या फिर दिखेगा मुजफ्फरनगर इफेक्ट ?

उत्कर्ष सिन्हा

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यूपी के विधान सभा चुनावों में मुजफ्फरनगर एक बार फिर अपना असर दिखाने के लिए तैयार है ?

विधान सभा चुनावों में जब 150 दिनों से कम बाकी है तब मुजफ्फरनगर में 5 सितंबर को हुई किसान पंचायत में उमड़ी भीड़ ने यूपी के चुनावी माहौल की गर्मी और बढ़ा दी है। बताया जा रहा है कि इस पंचायत में करीब 5 लाख लोग जुटे थे। पंचायत के मंच से भले ही सियासी दलों को दूर रखा गया मगर इस पंचायत के सियासत पर पड़ने वाले असर से किसी को इनकार नहीं होगा।

ये वही मुजफ्फरनगर है जहां 2013 में हुए भीषण सांप्रदायिक दंगों के असर ने 2014 के लोकसभा और 2017 के विधान सभा चुनावों में भाजपा को प्रचंड बहुमत दिलाने की जमीन तैयार कर दी थी। मुजफ्फरनगर की आंच से सुदूर पूर्व का बलिया भी प्रभावित हुआ था और वोटों के ध्रुवीकरण ने पहले नरेंद्र मोदी और फिर योगी आदित्यनाथ को सत्ता के शिखर पर पहुँचा दिया।

लेकिन इस बार मुजफ्फरनगर की आंच उलटी दिशा में है और सियासत के जानकार इसका चुनावी असर भापने में लगे हुए हैं।

महापंचायत की कवरेज कर रहे एक वीडिओ जर्नलिस्ट की बातों को सुनना बहुत जरूरी है..  “मैं बीते दो दिनों से मुजफ्फरनगर और बागपत के दौरे पर हूँ, महापंचायत को ले कर किसानों में जबरदस्त उत्साह है, मगर जो बात सबसे ज्यादा चौंका रही है वो ये, कि दो दिनों से इस इलाके का कोई भाजपा नेता बाहर नहीं दिख रहा और भाजपा का झण्डा लगी हुई गाड़ियां सड़क से गायब हो गई हैं।“

इस बात को गहराई से समझना जरूरी है। आंदोलनकारी किसानों की सीधी लड़ाई केंद्र की भाजपा सरकार से है। शुरुआती दौर में ये लड़ाई वहीं तक सिमटी दिख रही थी लेकिन भाजपा नेताओं द्वारा पहले किसानों को खालिस्तानी, नक्सली बताने और फिर नकली किसान कह देने के बाद यह गुस्सा सरकार के साथ साथ पार्टी के खिलाफ भी बढ़ गया।

रही सही कसर यूपी के मुख्यमंत्री योगी की उस चुनौती के बाद और पूरी हो गई जिसमे उन्होंने किसानों को यूपी में घुसने पर कठोर अंजाम भुगतने की बात कह दी थी। ऐसे बयानों के बाद सोशल मीडिया पर किसानों के खिलाफ कई मीम भी भाजपा समर्थकों द्वारा जारी किए गए। किसानों के निशाने की जड़ में यूपी सरकार भी आ गई और किसान संगठनों ने मुजफ्फरनगर महापंचायत की घोषणा कर दी।

किसान संगठनों ने भाजपा को चुनावों में हराने का संकल्प व्यक्त कर दिया है।  किसानों का रुख देख कर यूपी की विपक्षी पार्टियां भी सक्रिय हो गई और फिर सभी पार्टियों ने किसानों के समर्थन के बयान देने शुरू कर दिए हैं।

किसान आंदोलन के तेज होने के बाद लंबे समय से सियासत के हाशिये पर पड़ी राष्ट्रीय लोकदल भी सक्रिय हो गया। उसने ये दावा करना शुरू कर दिया है कि किसानों ने जब से उसे छोड़ा किसानों के हित भी प्रभावित हुई। रालोद की ये कोशिश असर भी दिखा रही है और पश्चिमी यूपी में उसका खोया वोट बैंक भी वापस आता दिखाई दे रहा है। बीते कुछ चनावों से रालोद का चुनावी गठबंधन समाजवादी पार्टी के साथ बना हुआ है और ऐसे माहौल में इस गठबंधन के लिए चुनावी फायदे से इनकार नहीं किया जा सकता।

भारतीय किसान यूनियन का सबसे बड़ा आधार जाट बिरादरी में है। चौधरी अजीत सिंह के खत्म होते करिश्मे और 2013 के दंगों के बाद से ही ये वोट भाजपा की तरफ एक मुश्त तरीके से शिफ्ट हो गए थे। जिसका नतीजा ये हुआ कि इस इलाके की करीब 150 सीटों पर भाजपा का एकतरफा दबदबा हो गया था।

इन दंगों का एक असर ये भी हुआ था कि हिन्दू और मुस्लिम जाटों के बीच भी बड़ा विभाजन हो गया था। किसान आंदोलन ने विभाजन की इस खाई को पूरी तरह से पाट दिया है और इसी वजह से दंगों के बीच उभरे संजीव बालियाँन और संगीत सोम सरीखे नेता फिलहाल काफी कमजोर दिखाई देने लगे हैं।

किसान आंदोलन की शुरुआत के वक्त से ही इसके नेताओं ने इस खाई को पाटने का काम शुरू कर दिया था। दोनों बिरादरी के नेता एक साथ गावों में घूमे और उन्होंने वापस एकजुटता बनाई।

यूपी में वोटिंग पश्चिम से ही शुरू होती है जहां पहले चरण के मतदान के साथ ही वोटरों का रुख दिखाई देने लगता है जिसका असर कमोबेश पूरब की सीटों तक जाता है। ऐसे में भाजपा के रणनीतिकारों को पश्चिमी यूपी में अपनी जमीन को वापस मजबूत करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी।

5 सितंबर की महापंचायत के बाद एक बात तो तय है कि यूपी की सियासत में मुजफ्फरनगर एक बार फिर असर दिखाने वाला है।

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